पिताजी का बचपन (2)

पिताजी के बचपन में देश में विद्यालयों की संख्या बहुत कम थी. उन्हें खुद लगभग दस किलोमीटर दूर पढ़ने जाना पड़ता था. रास्ते में एक नदी और उसके किनारे श्मशान पड़ता था. वापस लौटते-लौटते अंधेरा हो जाता था. पिताजी के साथ के लड़के सारे रास्ते हनुमान चालीसा पढ़ते हुये आते थे और पिताजी सबसे आगे-आगे नरमुंडों को फुटबाल बनाकर खेलते हुये. कोई सोच सकता है कि एक दस-ग्यारह साल का बालक ऐसी हरकत कर सकता है? पर वे ऐसे ही थे.

एक बड़ी मज़ेदार घटना अपने बचपन की वे अक्सर सुनाते थे. हाइस्कूल की परीक्षा देने के लिये वे एक साधु बाबा की कुटिया में रुके थे. कुछ-कुछ आश्रम जैसा माहौल था वहाँ. एक पेड़ के नीचे कुछ गोल-गोल पत्थर रखकर उसे शिव-मन्दिर बना दिया गया था. वैसे तो कई मन्दिर थे ही. वहाँ बन्दर बहुत थे, जो पिताजी के मनपसंद आम के पेड़ पर नज़र लगाये रहते थे. उस पर छोटी-छोटी अमिया लगी थीं. पिताजी साधु बाबा और उनके शिष्यों की नज़र बचाकर, वहाँ रखे गोल पत्थरों को बन्दर भगाने और अमिया तोड़ने के काम में लाने लगे. एक दिन साधु बाबा ने ध्यान दिया कि बहुत कम पत्थर बचे हैं. उन्होंने धमकाकर पूछा तो वहाँ रह रहे और परीक्षार्थियों ने पिताजी का नाम बता दिया. अब क्या था? साधु बाबा का गुस्सा सातवें आसमान पर. उन्होंने पिताजी को डाँटा. जब दादाजी परीक्षाओं के बाद पिताजी को लेने गये तो उनसे पिताजी की शिकायत करते हुये साधु बाबा ने कहा कि इतना घोर पाप किया है इसने. इसके पास होने के आसार कम ही हैं. दादाजी चिन्तित हो गये. जब पिताजी अच्छे नम्बरों से पास हो गये तो साधु बाबा बोले “घोर कलियुग है.”

जब देश स्वतन्त्र हुआ तो पिताजी की उम्र ग्यारह-बारह साल रही होगी. पिताजी बताते थे कि कैसे आज़ादी की खुशी में स्कूल में प्रभात फेरियाँ लगायी जाती थीं, जिसमें वे सबसे आगे रहते. गाँधीजी के बारे में पिताजी अपने मास्टर साहब से सुना करते थे. असहयोग आन्दोलन, दांडी मार्च आदि की कहानियाँ गाँव-गाँव में सुनी-सुनाई जाती थीं. संचार के साधन न होते हुये भी कोई भी खबर रातोंरात बिजली की तरह फैल जाती थी. पिताजी बताते थे कि गाँव की औरतें गाँधी बाबा को भगवान का अवतार मानती थीं. हमलोगों को आज़ादी के समय की बातें पिताजी से सुनना बहुत भाता था.

पिताजी के बचपन के दिनों में अनाज की बहुत किल्लत थी. देश में हरित क्रांति के बाद ही लोगों को पर्याप्त अन्न मिलने लगा. खुद पिताजी एक समय खाकर और चिउड़ा लेकर स्कूल जाते थे. जूते-चप्पल भी मुश्किल से मिलते थे. भयंकर ठंड में उन्हें नंगे पाँव स्कूल जाना पड़ता था, वो भी इतनी दूर. सभी की यही हालत थी. पिताजी को पहली जूतों की जोड़ी मिडिल स्कूल में मिली थी. पिताजी ने बचपन में जितनी कठिनाइयाँ झेली थीं, उन सबका बदला हम बच्चों से लिया. मैं जब दस साल की थी तो पिताजी का ट्रान्सफ़र उन्नाव जिले के बगल के एक छोटे से रेलवे स्टेशन मगरवारा में हो गया. उस समय पिताजी उन्नाव में पोस्टेड थे. उन्नाव छोटा जिला ज़रूर था, पर शहर में सारी सुविधाएँ थीं. हम एक बहुत अच्छे स्कूल में पढ़ रहे थे. सभी लोगों ने कहा “चौबे जी, आप इसी शहर में कोई किराये का मकान लीजिये और डेली पैसेन्जरी कर लीजिये. कहाँ जंगल में ले जायेंगे बीवी-बच्चों को.” पर पिताजी नहीं माने. उन्होंने हम भाई-बहनों से कहा कि “तुमलोग बहुत आरामपसंद हो गये हो. मेरे रिटायर हो जाने पर तुम्हें गाँव में रहना पड़ेगा. इसलिये अभी से आदत डाल लो.” और हमें मगरवारा जाना पड़ा. हमलोगों ने पूरे चार साल डेली पैसेन्जरी करके पढ़ाई की. ऐसे थे हमारे पिताजी.

पिताजी ने हमलोगों को जितना हो सका, कठोर परिस्थितियों को झेलने के लिये तैयार किया. उन्होंने बचपन में जिन चीज़ों की कमी झेली थी, हमें कभी भी नहीं होने दी. पर उन्होंने हमें जानबूझकर सुख-सुविधाओं की आदत नहीं लगने दी. वे ऐसे व्यक्ति थे कि कूलर इसलिये नहीं लिया कि हम इतने सुविधाभोगी न हो जायें कि गाँव में न रह पायें. फ़्रिज़ इसलिये नहीं लिया कि हमें ताज़ी सब्ज़ियाँ खाने की आदत रहे और खुद बाज़ार से जाकर रोज़ हरी सब्ज़ी ले आते थे. पर हमारे खाने-पीने, पढ़ाई और अतिरिक्त गतिविधियों के लिये उनका हाथ हमेशा खुला रहता था. पिताजी ने अपने बचपन में परीक्षा के लिये कभी पढ़ाई नहीं की और इसीलिये हमलोगों पर कभी परीक्षा में अच्छे नम्बर लाने के लिये दबाव नहीं डाला. ये बात अलग है कि कोई दबाव न होने पर भी मैं हमेशा टॉपर रही.

पिताजी के बचपन की कहानियों ने हमें समय-समय पर बहुत प्रेरित किया है. जब भी कोई मुश्किल पड़ती, पिताजी के बचपन के दिन याद आ जाते. हम जानते थे कि हमें जो भी मुश्किलें झेलनी पड़ें, वे पिताजी द्वारा बचपन में सही गयी मुश्किलों के सामने कहीं नहीं टिकतीं. और… इन सब से बढ़कर, पिताजी के बचपन के विद्रोहों ने मुझे हमेशा अतार्किक बातों का विरोध करने की ताकत दी.


29 विचार “पिताजी का बचपन (2)&rdquo पर;

  1. बहुत अच्छा संस्मरण लिख रही हैं आप। आपका संयत भाषा में अतार्किक बातों का विरोध करने का अंदाज काबिले तारीफ़ है। आगे की पोस्ट का इंतजार है।

  2. और और लिखिए ……कुछ ज्यादा ही कड़क थे न पिता जी! -बच्चे कहाँ मानते हैं आजकल -हमारे समय में तो होस्टल में कूलर की कोई कल्पना नहीं कर सकता था पर अब कहीं कहीं होस्टल में ऐ सी भी सुनने को मिल रहा है -कूलर तो एक आम दृश्य है -मेरे भाई डॉ मनोज ने जब १९९१ में होस्टल के अपने कमरे में कूलर लगाना चाहा था तो मैंने मना किया मगर एक जगह से मिली इमदाद ने उनका काम आसान कर दिया -पिता जी और तत्क्रम में आपका भी कहना सही है की विद्यार्थी जीवन में ही कड़ी और विपरीत परिस्थितियों से जूझने का आत्मबल बन जाना चाहिए जो उत्तरोत्तर जीवन की भी पीठिका तैयार करता है –
    पिता जी के संस्मरण मुझे खुद मेरे कई बचपन के दृश्यों को सहसा साकार किये दे रहे हैं -किस तरह दर्जा पांच में पढने के दौरान रास्ते के एक मंदिर के आंम के बगीचे से आम तोड़ने की जुर्रत करने पर वहां के पुजारी ने बंधक बना लिया -कैसे छूटे अब याद ही नहीं आ रहा -बस इतना याद है कि मुझे और मुझसे ज्यादा खुरचाली मेरे मित्र को उस दुष्ट ने रस्सियों से बान्ध कर एक अँधेरे सीलन भरे कमरे में बंद कर दिया था -आज भी राष्ट्रीय राजमार्ग ५६ पर विद्यमान उस मंदिर से गुजरते वक्त रूह काँप जाती है .
    मैं भी लिखूं क्या अपना बचपन -आपने तो प्रेरित कर दिया !

  3. @Aradhana and not Anuradha:-))

    There will be a feeling of deja vu if I once again reiterate that almost all the fathers ,including yours and mine,went though trials and tribulations to raise up their children.The way you narrated the unheard aspects of your father’s past ,it’s clear that I will too be stating the same things if I start to pen the incidents associated with my father’s life.

    I live in village( a thing that I have now told you so many times) and in the evenings when elders group together and talk I am the one who listen them very consciously.During one such conversations,one of my father’s best childhood friend while narrating the experiences of their school going days told that their group used to visit their school barefoot.

    None of them had a proper clothes on their bodies.And you know Ganges flow though my village.In those days Ganges was quite huge in terms of width.I am not saying that he used to swim to get at the other end but then we had no bridge those days and therefore going across it via boats was a risky affair. However,he did that daily and afterword covered huge distance walking to get to his school.

    That was his daily routine. Like to point out the rebel which existed in my father’s heart.Though my father’s parent’s wanted that like other guys of his village he should work as a farmer and drop schools.However, he was a brilliant scholar.So good in Sanskrit that his head of department arranged father’s fees on his own behalf and ensured that he completes his studies.

    So when parents of my father refused to give money for his further studies,he struggled hard to ensure that his studies take place in proper manner. How he spent time in chill winter nights in open ,how he cooked food all by himself and still managed to attend school/college and other such incidents always give me the power to move all alone with a smile.

    “Ekala chalo re” is now my motto.But not without a constant smile on my face,with a heart that has a place for the pains of my fellow beings :-))

    Yours ,
    Arvind K.Pandey

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      1. तुमने अचानक मुझे एक बहुत गंभीर बात याद दिला दी.सोच के जरा उत्तर देना.एक बार मै बहुत साल पहले चाँदनी रात में अपने मित्र के साथ रोज ही कि तरह हल्की फुल्की बात कर रहा था.एक मोड़ पे आ के हम लोग गंभीर हो जाते थे .उस दिन भी ऐसा ही हुआ.बात थोड़ी गंभीर हो गयी.अपने माता पिता लोगो के रोल पर घूम गयी.

        मैंने पूछा उस खूबसूरत संवेदनशील दोस्त से कि यह बताओ यार कि जब हम पिताजी बनेगे तो क्या हम भी वो auara radiate करेंगे जो हमारे माता पिता करते है ?दुसरे शब्दों में क्या बच्चे उतनी ही गंभीरता और संवेदनशीलता से अपने parents से लगाव और अपनापन जाहिर कर पाने कि क्षमता से लैस होंगे ?

        वो सिर्फ मुस्कुरा के रह गया.क्या सोचती हो तुम ?मेरे दोस्त कि तरह सिर्फ मुस्कुरा के न रह जाना.उत्तर देना !!

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      2. @Arvind k pandey
        माँ-पिता के प्रति प्रेम नैसर्गिक है, तो हमारे बच्चों को हमसे क्यों नहीं होगा ? हाँ, बशर्ते हम भी अपने बच्चों को उतना ही स्नेह, प्रेम और ध्यान दें. उनकी वैसे ही देखभाल करें, जैसी हमारे माता-पिता ने हमारी की.

      3. Well, in our case it’s more than play of natural instincts.Hope our children have the capacity to see us not only through the prism of natural instincts but also through the elements involved in making of our persona :-))

        Times have changed realize that.

        Even a six year old knows the methods of committing suicide.

        Even a six year old knows that having a GF means a lot :-))

        Given the way dynamics of life is changing ,it remains to be seen how the future generations develop a bond with their parents.Now both the parents are almost working.TV (Tamasik Vaasana) is the mai baap of children. So even a girl child dancing in bare minimum clothes is a source of joy for parents. Oh !! Why I am unable to call it a dance of creativity !!! I must have a heathy vision and see such dance shows from a better angle :-)) Beauty lies in the eyes of beholder :-)) It’s time for me to realize that too :-))

        Coming back to topic, I must say that in coming days children are under influence of greater forces than natural instincts alone. So ,it remains to be seen what sort of bonds is generated.Well, as far as I can see, the great game of disinitegartion has started-the walls of intimacy are beginning to collapse one after another.

        Now the moment a wife comes ,the new couple starts seeking for privacy :-)) And U know same saas bahu jhagda has attained new dimensiosn with entry of bahu laced with so many rights . As a result of new right oriented society (minus duties) ,the nuclear family comes in existence. Mother father having left to the mercy of fate,the new age couples make merry in new world of theirs with their “Hum do humare do ” or whatever :-))

        How come old age homes have come in existence :-))

        (Sorry !! For a slight change in the course of discussion here.Kya karu mai aisa hi hu :-))

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      4. तुम बहस बहुत करते हो. वकील हो न. स्थिति इतनी भी निराशाजनक नहीं है, जितनी तुम सोच रहे हो. आजकल के बच्चे भी अपने माँ-बाप के प्रति उतने ही संवेदनशील हैं, जितने हम हैं. और आजकल के माँ-बाप अपने बच्चों पर ज्यादा ध्यान देने लगे हैं. मैंने अपनी दीदी की सोसाइटी में देखा है कि माँएँ बच्चों को टी.वी. पर कार्टून के सिवा और कुछ नहीं देखने देतीं. मेरी दीदी बेचारी ने तो खुद भी फ़िल्में और धारावाहिक देखना छोड़ दिया है. परिवर्तन हो रहे हैं, पर इतने बुरे भी नहीं. और तुम अधिकारसम्पन्न बहुओं की बातें कर रहे हो. मेरे हॉस्टल की बहुत सी लड़कियाँ, जिनमें लेक्चरर, पी.सी.एस. ऑफ़िसर सभी हैं, आज भी गाँव जाकर सिर पर पल्ला ले लेती हैं, जबकि कोई उन्हें ऐसा करने के लिये बाध्य नहीं करता. सास-ससुर का माता-पिता के समान ही सम्मान करती हैं. पता नहीं तुम कैसी लड़कियों से मिले हो, और कैसी नयी पीढ़ी से, जो इतनी निराशाजनक बातें कर रहे हो. मुझे लगता है कि आज की पीढ़ी जितनी प्राइवेसी पसन्द और आत्मविश्वास से भरपूर है, उतनी ही संवेदनशील भी.
        मेरा ये कहना है कि जो चीज़ें चिन्ताजनक हैं, उनकी चिन्ता करनी चाहिये, पर किसी के प्रति जजमेंटल नहीं होना चाहिये. निराश नहीं होना चाहिये.

      5. चलो सब अच्छा हो रहा है : -)) खुश :-)) वैसे मैंने सोसाइटी के बहुत से shades देखे है .”Fair sex ” के बहुत ” Unfair shades ” भी देखे है.अब तुम्हारा realism मेरे से differ करता है तो इसमें मेरा क्या कसूर ? तुम्हारे इनकार करने से shades तो बदल नहीं जायेंगे ..वैसे तुम्हारा तर्क तुम पर बहुत भारी पड़ने वाला है ..तुम कहती हो सब बहुत अच्छा हो रहा है..निराशाजनक बात मत करो अरविन्द

        .. यही बात मै कहू कि तुम्हारे कुछ ख़ास महिलाओ को वो कौनसे “घुटन” ने घेर लिया कि “नारीवाद” जैसे distorted pattern का सहारा लेना पड़ा .और फिर उस घुटन से आजादी का उद्दघोष भी कर डाला ..मै भी यह कहूँगा यह तुम्हारी निराशा और और बहुत सारे अर्थ का अनर्थ समझने कि वजह से और फिर इसी को सम्सष्टि में convert करो और देखो कैसे फेमिनिस्म का उदय होता है ! फिर देखना क्या क्या तर्क गढे जायेंगे एक मिथ्या सच को वास्तविक बताने के लिए ..

        तब क्यों नहीं समझ में आता कि कौन सी blunder कर रही हो ..चलो मैंने माना मै निराशाजनक हो गया …चलो मान लेता हू ..सब तरफ सुहानी हवा चल रही है ..भंवरे गुंजन कर रहे है ..सब तरफ खुशबू बिखरी है …पर यह क्या कुछ औरते घुटन महसूस कर रही है !!!..यह निराशा क्यों ..खुद भी महसूस कर रही है और जो नहीं महसूस कर रही है उनको भी systematically यह बताया जा रहा है कि तोड़ दो सब जंजीरे और घुटन भरी दुनिया से बाहर आ जाओ ..मतलब हम घुट रहे है तो सारी दुनिया कि औरते घुट रही है ..वो खंडित मनोदशा का शिकार है तो सारी दुनिया के औरतो का यही हाल है ..क्यों वहा पे आशावादी क्यों नहीं हो ?

        जबकि यह सच है कि नारीवादी (भारतीय) हकीकत कि फिलोसोफी नहीं है बल्कि कुछ derailed औरतो का प्रलाप भर है ..अब तुम लोग देखो कितने तर्क गढ़ते हो इस झूठ को सच बताने में ..जो तुमको समझ में वो सच ..जो न समझ में आये वो झूठ ..ये क्या बात हुई ..अब मै तुमसे कहूँगा कि स्थिति इतनी भी बुरी नहीं औरतो कि उनको किसी वाद कि दामन पकड़ना पड़े …पर वो दामन पकड़ेंगी ,चीखेंगी ,भोंपू बजायेंगी 🙂 अब पुरुष भी नए वाद कि आधारशिला रखेंगा …

        और यह तय है कि इस”clash of ism ” औरतो का भयंकर नुक्सान होंगा :-)) ..

        वैसे मैंने माना कि सब ठीक है ..चिंता कि कोई बात नहीं बस यही है कि औरते घुटन महसूस कर रही है …दुनिया में सब अच्छा है बस सिवाय इसके कि औरते घुटन महसूस कर रही है :-))…Hoton ko karke gol Seeti baja ke bol Aal izz well :-))..अपने लिए नहीं है यह गीत क्योंकि अरविन्द के जहाँ में सब ठीक हो रहा है..उस जहाँ के लिए है यह गीत जिसमे आराधना घुटन भरी और साथ में उसकी पलटन के लिए है जो घुटन को सार्वभौमिक सत्य करने पे तुली है .I must say the show must go on :-))

        वैसे मै अब पुरुषो को समझाऊँगा कि वे भी घुटन से आज़ाद हो ..Shun the petticoat influence as early as possible. I am sure the men community will be seeking emancipation not via engineered and concocted truths but on very valid grounds.And the motto will be :Kill Female Terrorism For a Better Society :-))

      6. हाँ, मुझे मालूम था कि तुम यही कहोगे कि जब सब अच्छा हो रहा है तो फ़ेमिनिज़्म की क्या ज़रूरत है. मैंने क्या कहा इसको ठीक से समझे बगैर. मैंने ये कहा कि चीज़ें अगर सही नहीं है, तो निराशावादी होने की ज़रूरत नहीं है और फ़ेमिनिज़्म इसी आशावाद पर टिका है कि अगर हम चाहें तो सुधार होगा ही.
        पर, दिक्कत तो यही है. तुमलोगों को ओपेन सेक्स को लेकर चिन्ता होती है, नयी पीढ़ी के बर्बाद होने पर चिन्ता होती है, टीवी के बढ़ते कुप्रभाव की चिन्ता होती है… …पर औरतों की स्थिति की चिन्ता नहीं होती. और सब जगह विसंगतियाँ दिखती हैं, पर औरतों के जीवन की नहीं.
        और मैंने ये नहीं कहा कि सब अच्छा हो रहा है, मैंने सिर्फ़ ये कहा कि अगर बुरा हो रहा है, तो अच्छा भी हो रहा है. मेरे शब्दों पर गौर करो मैंने ये कहा है कि “स्थिति इतनी भी निराशाजनक नहीं है, जितनी तुम सोच रहे हो”
        मैंने यह कभी नहीं कहा कि औरतें हर जगह दमित हैं, पर उनके साथ भेदभाव होता है—-यह सच है.
        और अगर तुम्हें यह लगता है कि “नारीवादी (भारतीय) हकीकत कि फिलोसोफी नहीं है बल्कि कुछ derailed औरतो का प्रलाप भर है” तो वही सही. पर मुझे किसी ने डिरेल्ड नहीं किया है. मैं किसी इज़्म पर आँख मूँदकर विश्वास कर लेने वाले अतार्किक लोगों में से नहीं हूँ. मैंने भेदभाव महसूस किया है–जीवन के पग-पग पर, इसके बाद मैं हॉस्टल में रही और कई लड़कियों के अनुभव सुने, फिर फ़ेमिनिज़्म का अध्ययन किया, फ़ील्डवर्क किया, तब जाकर मैंने फ़ेमिनिज़्म पर विश्वास करना शुरू किया.
        पर इतना सब झेलने पर भी मैं यह नहीं मानती कि स्थिति बदतर हो रही है, स्थिति पहले से सुधरी है, पर और सुधार की ज़रूरत है और इसीलिये नारीवाद की ज़रूरत है. मैं औरतों की स्थिति को लेकर निराश होती तो मानती कि किसी इज़्म की ज़रूरत नहीं है.

        और भी…भारत में नारीवाद आज से नहीं सत्तर के दशक से (नारीवाद की दूसरी लहर के समय से) है, तो औरतों का अगर भयंकर नुक्सान होना होता तो उसके लिये चालीस साल कम नहीं होते, अब तक हो गया होता…पर शायद तुम जैसे कुछ लोग औरतों का भयंकर नुकसान होने से बचा रहे हैं न?
        ये भी एक problem है तुम्हारे साथ, जहाँ करना comment चाहिये, वहाँ तो करते नहीं हो और यहाँ शुरू हो गये. इस ब्लॉग पर मैं कोई वाद-विवाद नहीं चाहती.

      7. अब जो कुछ कहूँगा दूसरी जगह कहूँगा !! यहाँ वाद विवाद नहीं होना चाहिए :-)).

        .मै चाहता नहीं था पर फिर भी विषय परिवर्तन हो गया .क्षमा !!

  4. बहुत ही अच्छा लग रहा है..आपके द्वारा लिखा ये संस्मरण…
    पिताजी से प्यार ,उनका सम्मान ,उनपर श्रद्धा और गर्व सब परिलक्षित हो रहा है, आपके लेखन में.और हमें परिचित करा रहा है,आपके पिताजी के विलक्षण व्यक्तित्व से.
    काफी रोचकता भी है आपके लिखने के अंदाज़ में…दिलचस्प लग रहा है पढना

    1. अरे नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है. ऐसा क्यों होगा ? पिताजी के देहांत को लगभग साढ़े तीन साल हो गये हैं. मैंने अपने आप को सँभाल लिया है. और रही बात उनकी कमी की वो जगह तो हमेशा खाली रहेगी. उसे तो कोई नहीं भर सकता. मैं उनकी अच्छी-अच्छी बातों को याद करके मुस्कुराने की कोशिश करती हूँ, यही वो चाहते थे.

      1. आराधना, वो जहा भी होगे, उन्हे तुम पर गर्व होगा… और मुस्कुराना एक आर्ट है… ज़िन्दा दिल इस आर्ट के मुरीद होते है..

        एक ज़िन्दा दिन लडकी से मिलकर खुशी हुयी…इस दोस्ती को रिचार्ज करता रहूगा :P..

  5. आपके पिता जी के शील की सजीवता निरख रहा हूँ ! और यह सजीवता भी धीर नहीं, ललिल अधिक दिख रही है !

    पढ़ता जा रहा हूँ, महसूस भी रहा हूँ बहुत कुछ ! महत्वपूर्ण श्रृंखला ! आभार ।

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